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दिव्य-नेत्र का खुल जाना ही ध्यान का मंगलारम्भः आशुतोष महाराज

देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के संस्थापक आशुतोष महाराज ने कहा कि हमारे जीवन के तनाव और व्याकुलता का केवल एक ही कारण है। वह है अस्थिरता और इससे उबरने के लिए एक ही उपाय है कि हम अपने अस्तित्व के आधारभूत स्थिर-बिंदु को खोजें और उससे जुड़ने की कला सीखलें। हमारे आर्य-ग्रंथों के अनुसार इस कला अथवा स्थिर जीवन की पद्धति को ध्यान कहा गया। ऐसा नहीं कि आज का समाज इस पद्धति की महत्ता से बेखबर है। आज कुकुरमुत्तों की तरह स्थान-स्थान पर ध्यान केंद्र खुल गए हैं, जिनमें तरह-तरह की मेडिटेशन तकनीकें सिखाई जाती हैं।
इन ध्यान तकनीकों ने हमें निःसंदेह सहारा अवश्य दिया, परन्तु इतना अधूरा कि हम पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पाए। अतः इस स्थिति में हमें एक ऐसे अनुभवी डॉक्टर अर्थात् पूर्ण सद्गुरु की दीक्षा खोजनी होगी, जो ध्यान-साधना की सटीक और उपयुक्त विद्या प्रदान करने की सामर्थ्य रखते हों। ध्यान की विशुद्ध परिभाषा हमें प्राप्त होती है- अर्थात् ध्यान-साधना बाह्य या ऐन्द्रिक अनुभवों का अवरोध करना भर नहीं है। अपने बोध को किसी खालीपनपर टिकादेना भी नहीं; बल्कि ध्यान स्वबोध को एक दिव्य, अलौकिक, परमोज्जवल तत्व मेंले जाना है, जो हमारे अंदर ही समाया है। ध्यानबाह्य लोक में स्थित होकर अंतर्लाेक में पूरी गति से ध्येय की ओर यात्रा करना है। हमारे समस्त शास्त्र-ग्रंथोंके अनुसार इस सकल जगत में साधने योग्य एकमात्र ध्येय वह चिरस्थायी सत्ताहै, जो हर मनुष्य के भीतर स्थित प्रकाश स्वरूप आत्मा है। यही वह स्थिर परम-बिंदु है, जो स्थायी और नित्य आनंद का केंद्र है। आत्मा रूपी ध्येय में मन का स्थित हो जाना ही ध्यान है। अपने दिव्य सिम कार्ड को एक्टिवेट कराएँ।
यह आध्यात्मिक हृदय, जो आत्म-तत्त्व (ध्येय) का निवास स्थल है, हमारे मस्तक के बीचों बीच अर्थात् आज्ञा चक्र पर स्थित माना गया है। किन्तु यहाँजानने योग्य बात यह है कि इस आज्ञा चक्र पर सीधे मन को एकाग्र करने से भीकाम नहीं बनेगा, ध्यान नहीं सधेगा। हमारा यत्न ऐसा होगा जैसे बिना सिम कार्ड वाले मोबाइल से सम्पर्क जोड़ना। यह दिव्य सिम कार्ड क्या है? सभी प्रमाणित शास्त्रोंके अनुसार इसे तृतीय नेत्र, दिव्य नेत्र या शिव नेत्र कहते हैं, जो हमारे आध्यात्मिक हृदय के बीचोंबीच स्थित होता है। एक पूर्ण गुरु ब्रह्मज्ञान की दीक्षा देते समय इसी अलौकिक नेत्र को खोल देते है अर्थात् दिव्य सिमकार्ड को एक्टिवेट कर डालते है। अतः सद्गुरु द्वारा प्रकट श्दिव्य-नेत्रश् से परम या आत्म-तत्त्व का दर्शन किया जाता है। इस प्रकाश स्वरूप में ही व्यक्ति का मन एकाग्र व लीन होता है। और यहीं से होता है, ध्यान का मंगलारम्भ!सारांशतः श्बाहरी नेत्रों को बंद करना ध्यान नहीं, अपितु दिव्य-नेत्र का खुल जाना ध्यान का आरम्भ है।

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