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बापू के भारत में बापू पर सियासत

सलीम रजा //

हर साल 2 अक्टूबर को बापू जयंती पर उन्हे श्रद्धा सुमन अर्पित किये जाते हैं। देश के लिए दिये गये उनको योगदान को याद भी किया जाता है लेकिन आज बापू के भारत में बापू के नाम पर ही सियासत चली जा रही है। क्या बापू ने ऐसे भारत की कल्पना करी होगी। मोहन दास करमचन्द गांधी यानि बापू सिर्फ भारत के ही नहीं बल्कि विश्व के सबसे ज्यादा ताकतवर शख्सियत में शुमार थे। आज जिस तरह से भारत धर्म-जाति में उलझकर छिन्न-भिन्न हो रहा है, भौतिकता की दौड़ में भागने की प्रतिस्पर्धा में लिप्त समाज में नैतिकता का कोई मोल रह ही नहीं गया है। मुझे याद है कि गांधी जी ने अपनी अपनी कृति ‘मेरे सपनों का भारत’ में लिखा था कि मैं भारत को स्वतंत्र और बलवान बना हुआ देखना चाहता हूं। लेकिन भारत किस तरह से बलवान बना रह सकता है, जहां सियासत ने लोगों को धर्म और जाति की आग में झोंककर राज करने का मंत्र ढूंढ लिया हो जो ‘बांटो और राज करो’ की विचारधारा रखती हो जिस पर पाश्चात्य सभ्यता का साया हो।

दरअसल गांधी जी पाश्चात्य सभ्यता के धुर विरोधी थे। उनका इस सभ्यता के प्रति विरोधी होना इस बात का परिचायक था कि गांधी जी पाश्चात्य सभ्यता और नीतियों के पड़ने वाले बुरे असर को भलि-भांति जानते थे, लेकिन ये हमारे भारत का दुर्भाग्य है कि आजादी के 75 साल बाद भी जिस तेजी के साथ लोगों ने पाश्चात्य सभ्यता और नीतियों को अपने अन्दर समाहित कर लिया है।ऐसा तो आजादी मिलने से पहले कभी नहीं था। गांधी जी का नजरिया था कि भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोग भूमि नहीं। लेकिन देखा ये जा रहा है कि हम सब भारत को भोगभूमि बनाने में लगे है। लेकिन ये सत्य है और इस बात का इतिहास भी गवाह है कि भोगवादी संस्कृति इंसान के पतन का कारक है। क्या सच में हम पतन की तरफ तेजी से अग्रसर हो रहे हैं। बहरहाल, आज देश में साम्प्रदायिकता का जिस तरह से जहर घुल रहा है वो कम से कम आजाद भारत और गांधी जी के सपनों के भारत में पल रहे फासले को बताने के लिए पर्याप्त हैं।

आज भारत में जिस तरह कीे सियासत अपने पांव पसार रही है उसका जबाव किसके पास है ? कितना अजीब लगता है कि सभी गांधी जी के विचारों से इत्तेफाक रखते हैं लेकिन ये समझ में नहीं आता कि जब लोग सियासत का चश्मा पहनकर अपनी.अपनी दलीलें देते हैं तो गांधी जी के विचारों को किस जगह रख देते हैं। आज जब चारों ओर देश साम्प्रदायिकता की आग में जल रहा है और हमारे सियासत दां उस आग में घी डालने का काम कर रहे है तो ये बात कहना उचित है कि हम गांधी जी के आदर्शों और उनके विचारों को आगे लायें। क्योंकि किसी भी बात का हल हिंसा हो नहीं सकता। इस बात से सब इत्तेफाक रखते हैं लेकिन ये क्यों भूल जाते हैं कि वो खुद अहिंसा का पाठ भूलकर लोगों को उकसा रहे हैं जिससे हिंसा फैल रही है।

महात्मा गांधी हमेशा बिखरते भारत को लेकर चिन्तित रहते थे। क्योंकि उन्हें आजादी से ज्यादा इसकी फिक्र थी। वो चाहते थे कि भारत के हर एक नागरिक को आजादी और समृद्ध प्राप्त करने का अधिकार हो। अब जरा सोचिए गांधी जी ने जिस भारत की कल्पना की थी क्या हम सात दशकों बाद भी ऐसे भारत का निर्माण कर पाने के काबिल हुये हैं ये प्रश्न हम सबसे इसका जवाब मांग रहा है। उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता की हमेशा मुखालफत की थी। क्योंकि उनका विरोध उस विचारहीन और विवेकहीन नकल के प्रति था जिसके प्रति अब हमारा रूझान है।

गांधी जी कहते थे कि मैं ऐसे संविधान की रचना करवाने का प्रयत्न करूंगा जो भारत को हर तरह की गुलामी और परावलम्बन से आजाद कर दे। लेकिन ये देश का दुर्भाग्य है कि सत्ता सुख का लम्बे समय तक स्वाद चखने की चाह रखने वालों ने जिस तरह से वोटों का तुष्टीकरण किया है जिस तरह से वोटों का धु्रवीकरण किया है और सत्ता मद में चूर होकर भारतीय संविधान में अब तक जितने भी बदलाव किये हैं, उनसे संविधान के प्रति गंाधी जी की मूल अवधारणा एक तरह से खत्म हो गई है। गाधी जी का सपना था कि मैं उस भारत का निर्माण करूंगा जिसमें ऊंच-नीच का कोई भेद.भाव न हो और देश में रहने वाले हर सम्प्रदाय के लोगों में आपसी भाईचारा कायम हो। हर इनसान में प्रेम हो जिससे वो ये महसूस करें कि ये देश उसका है।

आज जो राजनीतिक परिदृश्य चल रहा है उसमें गांधी जी के विचारों के लिए कोई स्थान नहीं है। जिनके हाथों में देश की बागडोर है वो लोकतंत्र और उसकी भावनाओं को आहत करने का काम कर रहे हैं। गांधी जी का विचार था कि व्यक्ति की पहचान उसके कपड़ों से नहीं उसके चरित्र से होती है। लेकिन सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग व्यक्ति को उसके कपड़ों से पहचान करके पूरे समुदाय को लांछित करने पर कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। उन्हीं महापुरूष का विचार है कि विश्वास करना एक गुण है जबकि अविश्वास दुर्बलता की जननी है। लेकिन मौजूदा समय में विश्वास जाने कहां खो गया शायद संकीर्ण मानसिकता की पराकाष्ठा पर पहुंचकर जिस सियासत की बात हो रही है वो तानाशाही के चाबुक से इंसानियत को जख्मी कर रही है।

बहरहाल,गांधी जी के आदर्श और उनके विचार अब शायद इतिहास के पन्नों में कैद होकर रह गये हैं। इसीलिए देश जिस राह पर चल पड़ा है वो शुभ संकेत नहीं कहे जा सकते हैं। आज देश में जिस तरह की घटनायें और इंसान को इंसान से जुदा करने की तरकीबें सत्ता सुख भोगने के लिए की जा रही हैं, जिसमें देश के ज्वलन्त मुद्दे गौण हो चुके हैं और देश में अस्थिरता का माहौल है। ऐसे में लगता है कि भारत को एक और गांधी की जरूरत है। कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि गांधी जी के मुख से निकला ‘‘हाय राम’’ शब्द भी अब सियासत का मूल मंत्र बन चुका है। जिसके दम पर देश में इंसानियत और मानवता शर्मसार हो चुकी है, लोगों के सामने अपने धर्म और मजहब को साबित करने के साथ-साथ देशभक्ति साबित करने की चुनौती खड़ी है।

ऐसे में देश की सुध कौन लेगा उस भारत में जहां साम्प्रदायिकता अपने चरम पर है। जब आजादी के बाद में देश साम्प्रदायिकता की आंच में जल रहा था वो इससे इतना व्यथित हुये कि उपवास पर बैठ गये। नौ दिन के उपवास के बाद वो दिल्ली में शांति और सौहार्द लाने के मकसद से महरौली में कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह पर गये थे। ये वो वक्त था जब समूची दिल्ली साम्प्रदायिक हिंसा की आग में जल रही थी। हालांकि,भीषण सर्दी थी लेकिन गांधी जी मौलाना आजाद और राजकुमारी अमृत कौर के साथ सुबह आठ बजे पहुच गये। उन्हें इस बात की चिन्ता थी कि धर्म के नाम पर मुस्लिमों पर हमला किया गया था। इस दंगे में मुस्लिमों के साथ बर्बरता पूर्ण व्यवहार किया गया था।

नतीजा ये हुआ कि मुस्लिमों को उस जगह से भागकर अन्यत्र शरण लेनी पड़ी थी और दरगाह को भी नुकसान पहुंचाया था। दरगाह पर पहुंचकर महात्मा गांधी ने सभी से अमन.चैन और शान्ति बनाये रखने की अपील की थी। ये वही बख्तियार काकी की दरगाह है जहां दिल्ली में हर साल बसंत ऋतु के समय साम्प्रदायिक सौहार्द के उत्सव के रूप में ‘‘फूलों कीसैर’’ करके मनाया जाता है। जो देश में धर्म.निरपेक्षता जीवित रखने का संदेश देता है। गांधी जी के आदर्शों और विचारों से इतिहास भरा पड़ा है।

भले ही गांधी जी की जयंती पर मंच सजाये जाते हैं। बड़े-बड़े व्याख्यान दिये जाते हैं, उनके फुट प्रिन्ट पर चलने का आहृवान किया जाता है। लेकिन गंाधी जी ने जिस स्वराज की बात की थी आखिर वो कहां है ?उनका मानना था कि स्वराज ऐसा पवित्र और वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ आत्म शासन और आत्म संयम है। जो आन्तरिक शक्ति पर और कठिन परिस्थितयों से जूझना ही है। लेकिन आजादी के बाद से ही हम गांधी जी के स्वराज की कल्पना मौजूदा सियासी घटनाक्रम में कैसे कर सकते हैं।

जहां धर्म के नाम पर सियासत हो रही हो भाषा तार-तार, मानवता शर्मसार और चेहरे पर साम्प्रदायिक रंग चढ़ा हो। जहां कपड़ों और खाने से व्यक्ति की पहचान करने का दावा किया जाता हो। जहां बलात्कार, भ्रष्टाचार और मॉब लींचिंग की घटनाये अपने चरम पर हों उस बापू के देश में जहां आज तक दलितों को अपने अधिकारों और स्वाभिमान के लिए भटकना पड़े। जहां शासन और प्रशासन का डर लोगो में खत्म हो चुका हो। क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता कि हम आजादी पाने के बाद गांधी जी के स्वराज से अलग हटकर ‘‘इन्डिपेंस’’ की तरफ तेजी से अपने पैर बढ़ा रहे हैं।

गांधी जी भारत और भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के एक राजनीतिक और आध्यात्मिक नेता थे। अपने अहिंसक विरोध के सिद्धंात की वजह से गांधी जी को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाता है। आइन्सटीन ने कहा था, ‘हजारों साल बाद भी आने वाली नस्लें इस बात पर बहुत मुश्किल से विश्वास करेंगी कि जर्जर शरीर वाला ऐसा इंसान भी धरती पर कभी आया होगा’। जब भी भारत के अन्दर वंचितों और शोषितों को अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर आना पड़े तो उन्हें बापू के बताये रास्ते पर चलकर अपने हक हासिल करते रहेंगे। भले ही आज गांधी जी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन जब तक दुनिया कायम है उनके विचार जीवित हैं और जीवित रहेंगे।

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