क्या जाति जनगणना मंडल आयोग जैसा बड़ा बदलाव ला सकती है?

नई दिल्ली : नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार ने जाति जनगणना कराने का ऐतिहासिक फैसला लिया है। यह निर्णय भारतीय राजनीति में दूरगामी असर डाल सकता है, जिसकी तुलना कई विश्लेषक मंडल आयोग की सिफारिशों से कर रहे हैं।
कांग्रेस समेत पूरा विपक्षी गठबंधन इस फैसले का श्रेय लेने की होड़ में है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दावा किया कि यह सरकार विपक्ष के दबाव के कारण झुकी है। राहुल गांधी ने कहा, “हमने लगातार इस मुद्दे को उठाया, संसद में आवाज़ बुलंद की, जनता के बीच इसे बड़ा मुद्दा बनाया, और आखिरकार सरकार को मजबूर होना पड़ा।”
जनगणना का इतिहास और महत्व
भारत में जनगणना हर 10 साल में होती है, जिसकी शुरुआत 1872 में वायसराय लॉर्ड मेयो के समय हुई थी। स्वतंत्र भारत में पहली जनगणना 1951 में हुई, लेकिन उसमें अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के अलावा अन्य जातियों का आंकड़ा नहीं जुटाया गया। पिछली जनगणना 2011 में हुई थी, जबकि 2021 की जनगणना COVID-19 के कारण टल गई थी।
जाति जनगणना क्यों जरूरी मानी जा रही है?
विशेषज्ञों के मुताबिक, 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को बहुमत से वंचित करने में दलित, ओबीसी और आदिवासी समुदायों के भीतर उपेक्षित वर्गों की एकजुटता ने अहम भूमिका निभाई। भाजपा अब इन वर्गों तक पहुंच बढ़ाने की कोशिश में है।
जाति जनगणना से सरकार को सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को समझने और आरक्षण व सामाजिक न्याय की नीतियों में बदलाव लाने में मदद मिल सकती है। साथ ही, इससे राजनीतिक प्रतिनिधित्व का संतुलन भी बदल सकता है, जिससे भारतीय राजनीति का व्याकरण ही बदलने की संभावना है।
बिहार का संदर्भ
इस घोषणा की टाइमिंग पर भी सियासी नजरें टिकी हैं, क्योंकि बिहार में विधानसभा चुनाव छह महीने बाद होने हैं। बिहार को जाति आधारित राजनीति का गढ़ माना जाता है, जहां जाति जनगणना के नतीजे कई समीकरण बदल सकते हैं। जाति जनगणना का यह फैसला भारतीय राजनीति में नई बहस को जन्म दे चुका है। क्या इससे सामाजिक न्याय को मजबूती मिलेगी या जातिगत विभाजन और बढ़ेगा — इसका जवाब आने वाला वक्त देगा।