गोरखा सैनिकों ने पत्थरों की बरसात से फिरंगी सेना को किया था पस्त
देहरादून: गोरखाओं का भारत की आजादी मे खासा योगदान था। उनकी बहादुरी के चर्चे किताबों में भी पढ़ने को मिलते हैं। आजाद हिन्द फौज में रहकर अपनी बहादुरी का परचम फहराने वाले गोरखाओं ने साल 1814 में देहरादून में नालापानी के समीप खलंगा पहाड़ी यानि खलंगा नेपाली भाषा का शब्द है,इसका अर्थ छावनी या कैंटोनमेंट होता है। युद्ध के ठीक पहले बलिदानी बलभद्र ने जैसे.तैसे पत्थर की चहारदीवारी खड़ी की और युद्ध लड़ा।पर महज 600 गोरखा सैनिकों ने हजारों की फिरंगी सेना के पसीने छुड़ा दिए थे।
इस युद्ध में गोरखा सेना का नेतृत्व कर रहे बलभद्र बलिदानी हो गए थे। तब गोरखा सैनिकों के पास हथियारों के नाम पर केवल खुखरियां थी,जबकि अंग्रेज फौज के पास बंदूक और तोपें थीं। इतिहास बताता है कि तब खलंगा में केवल 600 लोग ही रहते थे, जिनमें स्त्रियां और बच्चे थे। इस दौरान खलांगा निवासी स्त्रियों और बच्चों द्वारा किया गया पत्थरों का संग्रहण खूब काम आया। पहाड़ी से हुई पत्थरों की बरसात ने फिरंगी सेना को खदेड़ने में खूब काम आया। तब ईस्ट इंडिया कंपनी के करीब तीन हजार सैनिक इस गोरखा इलाके के पास मौजूद थे।
इस युद्ध में गोरखा सैनिकों ने अद्भुत रण कौशल दिखाया।
फिरंगी सेना को विश्वास था कि खलंगा का सेनापति आत्मसमर्पण कर देगा,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
ब्रिटिश दूत का संदेश जब बलिदानी बलभद्र के पास पहुंचे तो उन्होंने इसे पढ़ने से मना कर फाड़ दिया और कहा मैं युद्धभूमि में जरूर मिलूंगा।
शुरुआती हमलों में फिरंगी सेना को नुकसान उठाना पड़ा।
स्त्री टोली ने फिरंगी सैनिक पर पत्थरों की बारिश कर दी।
रणनीति बनाकर पहुंची फिरंगी सेना को दो बार पीछे हटना पड़ा था।
गोरखा वीरों ने पूरी जान से युद्ध लड़ा।
खलंगा को गोरखा किला के नाम से जाना जाता था।
यहां 1814 ईसवी में अंग्रेजों ने आक्रमण किया था जिसमें गोरखाओं की ओर से बलभद्र थापा सेनानायक के रूप में अंग्रेजों से लड़े।
बलभद्र ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए अंग्रेजों से मुकाबला किया।
इस युद्ध में अंग्रेजी सेना के जनरल गैलेप्सी मारे गए।
गोरखा किले को अंग्रेजों ने अपने आधिपत्य में ले लिया था,लेकिन बलभद्र व उनके साथी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगे।
साभार: जागरण समाचार