सादगी, सत्य और संघर्ष का प्रतीक लोकनायक जयप्रकाश नारायण

(सलीम रज़ा, पत्रकार)
जयप्रकाश नारायण भारतीय राजनीति के उस उज्ज्वल अध्याय का नाम हैं, जिन्होंने अपने जीवन से यह साबित किया कि सच्चा नेता वही होता है जो जनता के लिए, समाज के लिए और देश के लिए निस्वार्थ भाव से काम करे। उन्हें पूरे देश में “लोकनायक” के नाम से जाना जाता है, क्योंकि उन्होंने हमेशा जनता की आवाज़ को अपना मार्गदर्शन माना। वे सत्ता के लोभ से दूर, सत्य और न्याय के पथ पर चलने वाले महान राष्ट्रभक्त थे। उनका जीवन एक साधारण व्यक्ति से असाधारण जननायक बनने की प्रेरणादायक कहानी है।
जयप्रकाश नारायण का जन्म 11 अक्तूबर 1902 को बिहार के सारण जिले के सिताबदियारा गाँव में हुआ था। यह गाँव गंगा और घाघरा नदियों के संगम क्षेत्र में स्थित है। उनके पिता हरसुख राय एक मामूली राजस्व कर्मचारी थे और माता फूलरानी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। बचपन में ही जयप्रकाश में सेवा भावना, करुणा और न्यायप्रियता के संस्कार विकसित हो गए थे। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा गाँव में और फिर पटना में प्राप्त की। वे बचपन से ही मेधावी और जिज्ञासु छात्र थे।
सन् 1919 में उन्होंने पटना कॉलेज में प्रवेश लिया, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति बढ़ती रुचि के कारण उनकी पढ़ाई बाधित हुई। उसी समय गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ और उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया। बाद में उन्होंने अमेरिका जाकर पढ़ाई पूरी की, जहाँ उन्होंने समाजवाद और लोकतंत्र के सिद्धांतों का गहराई से अध्ययन किया। अमेरिका में पढ़ते हुए उन्होंने स्वयं मजदूर के रूप में भी काम किया और कठिन परिश्रम का अनुभव प्राप्त किया। वहाँ उन्होंने देखा कि समाज किस तरह मेहनत, समानता और अधिकारों के आधार पर चलता है। भारत लौटने पर उन्होंने तय किया कि वे अपने देश में भी सामाजिक और आर्थिक समानता की स्थापना के लिए कार्य करेंगे।
भारत लौटने के बाद जयप्रकाश नारायण महात्मा गांधी के संपर्क में आए और कांग्रेस में शामिल हो गए। वे जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं के साथ मिलकर आज़ादी की लड़ाई में जुट गए। उन्होंने कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना की, जिसका उद्देश्य समाजवाद के सिद्धांतों पर आधारित स्वतंत्र भारत का निर्माण था। वे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खुले तौर पर आवाज़ उठाने लगे। 1932, 1940 और 1942 में वे जेल गए। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। ब्रिटिश शासन उन्हें एक खतरनाक नेता मानता था क्योंकि वे जनता को संगठित कर रहे थे और अन्याय के खिलाफ खड़े हो रहे थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जयप्रकाश नारायण ने राजनीति से स्वयं को कुछ समय के लिए अलग कर लिया। उन्होंने “सर्वोदय” आंदोलन में भाग लिया और समाज सुधार को अपना लक्ष्य बनाया। वे विनोबा भावे के “भूदान आंदोलन” से भी जुड़े और ग्रामीण विकास, शिक्षा सुधार तथा सामाजिक न्याय के लिए कार्य किया। उन्होंने सत्ता की राजनीति को त्याग दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि राजनीति में सिद्धांतों और आदर्शों की जगह स्वार्थ और भ्रष्टाचार ने ले ली है। वे मानते थे कि सच्चा परिवर्तन जनता के भीतर से आता है, न कि केवल शासन से।
सन् 1974 में उन्होंने “सम्पूर्ण क्रांति” का नारा दिया। इस क्रांति का अर्थ था—व्यवस्था परिवर्तन। वे चाहते थे कि भारत में न केवल शासन बदले, बल्कि समाज की सोच, शिक्षा प्रणाली, आर्थिक ढांचा और नैतिक मूल्यों में भी सुधार हो। उनका कहना था कि “सिर्फ सरकार बदलने से कुछ नहीं होगा, हमें पूरे समाज को बदलना होगा।” उनके नेतृत्व में शुरू हुआ यह आंदोलन धीरे-धीरे देशव्यापी जनांदोलन बन गया। विशेषकर युवाओं ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। बिहार छात्र आंदोलन से लेकर दिल्ली तक उनकी आवाज़ गूंजी। उन्होंने जनता को सिखाया कि लोकतंत्र में जनता ही सबसे बड़ी शक्ति है।
1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया, तब जयप्रकाश नारायण ने खुलकर इसका विरोध किया। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस निर्णय को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया। उन्हें जेल में डाल दिया गया, पर उन्होंने झुकने से इंकार कर दिया। जेल में रहते हुए भी वे लोकतंत्र की रक्षा के लिए अडिग रहे। उनके साहस, सादगी और दृढ़ संकल्प ने जनता को एकजुट किया और आपातकाल के खिलाफ जनमत को प्रबल किया। 1977 में जब आपातकाल समाप्त हुआ, तो जनता ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विपक्ष को समर्थन देकर देश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई। उन्होंने स्वयं कोई पद स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनका उद्देश्य सत्ता नहीं, व्यवस्था सुधार था।
जयप्रकाश नारायण ने अपने जीवन में हमेशा सादगी और ईमानदारी को प्राथमिकता दी। वे न तो विलासिता के जीवन में विश्वास करते थे, न ही सत्ता के मोह में फंसे। वे समाज में हर व्यक्ति को समान अधिकार और अवसर देने के पक्षधर थे। उनका विश्वास था कि देश तभी मजबूत होगा जब उसके नागरिक शिक्षित, नैतिक और जिम्मेदार होंगे। वे युवाओं को देश निर्माण की सबसे बड़ी शक्ति मानते थे। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे।
11 अक्तूबर को हर साल देश भर में “लोकनायक जयप्रकाश नारायण जयंती” मनाई जाती है। यह दिन न केवल एक नेता को याद करने का अवसर है, बल्कि लोकतंत्र की भावना को मजबूत करने का भी प्रतीक है। जयप्रकाश नारायण ने हमें सिखाया कि सच्ची राजनीति सेवा का माध्यम है, न कि स्वार्थ का साधन। वे कहते थे, “लोकतंत्र तभी जीवित रहेगा, जब जनता सजग रहेगी।”
जयप्रकाश नारायण का जीवन भारतीय राजनीति में आदर्श, सत्यनिष्ठा और जनसेवा का प्रतीक है। वे केवल बिहार या भारत के नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए प्रेरणास्रोत हैं। उन्होंने दिखाया कि एक व्यक्ति भी यदि सच्चाई और निष्ठा के साथ जनता के हित में खड़ा हो जाए, तो वह व्यवस्था को बदल सकता है। उनका जीवन संदेश देता है कि समाज में बदलाव लाने के लिए सबसे पहले हमें स्वयं को बदलना होगा। जयप्रकाश नारायण सच्चे अर्थों में जननायक थे — जिन्होंने जनता को उसकी शक्ति का एहसास कराया, और लोकतंत्र को उसकी असली आत्मा दी।
वे आज भी भारतीय जनमानस के हृदय में जीवित हैं, और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने रहेंगे।