इल्म की राह में रुकावटें और मुसलमानों की चुनौतियाँ

(सलीम रज़ा, पत्रकार, लेखक)
आज जब दुनिया तेज़ी से आगे बढ़ रही है, मुसलमानों के बीच यह सवाल अक्सर उठता है कि हम दीनी तालीम यानी धार्मिक शिक्षा के मामले में पीछे क्यों हैं। असल में इसके पीछे कई कारण हैं — समाज की सोच, आर्थिक हालात, तालीम का ढांचा और समय के साथ कदम न मिला पाना। अगर इन बातों को सरल भाषा में समझा जाए, तो तस्वीर साफ़ हो जाती है।
सबसे पहले, मुसलमानों में तालीम का सिस्टम दो हिस्सों में बंटा हुआ है। एक है मदरसे की तालीम, जहाँ बच्चे कुरआन, हदीस और इस्लामी इतिहास पढ़ते हैं। दूसरा है स्कूल-कॉलेज की तालीम, जहाँ दुनियावी विषय जैसे विज्ञान, गणित और अंग्रेज़ी सिखाई जाती है। जब कोई बच्चा मदरसे में जाता है, तो वह आधुनिक शिक्षा से दूर हो जाता है, और जब कोई बच्चा स्कूल में पढ़ता है, तो वह दीनी तालीम से कट जाता है। इस दोहरे ढांचे ने बच्चों के लिए एक संतुलित रास्ता नहीं छोड़ा। दीनी और दुनियावी तालीम को मिलाकर पढ़ाने की व्यवस्था बहुत कम जगहों पर है।
दूसरा बड़ा कारण आर्थिक कमजोरी है। मुस्लिम समाज के बहुत से परिवार आज भी आर्थिक रूप से कमजोर हैं। जब घर की आमदनी कम होती है, तो बच्चों को जल्दी काम पर लगना पड़ता है या सस्ती शिक्षा में ही गुज़ारा करना पड़ता है। दीनी तालीम के लिए समय, ध्यान और स्थायी साधन चाहिए — जो गरीब परिवारों के लिए मुश्किल हो जाता है। इस कारण बहुत से बच्चे न तो दीनी और न ही दुनियावी शिक्षा में पूरी तरह आगे बढ़ पाते हैं।
मदरसों की हालत भी सुधार की मांग करती है। ज़्यादातर मदरसे आज भी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं। वहाँ शिक्षा का तरीका वैसा ही है जैसा सौ साल पहले था। बच्चों को सिर्फ कुरआन या फिक्ह पढ़ाना काफी नहीं है। आज के समय में अगर दीनी तालीम को असरदार बनाना है तो उसमें विज्ञान, समाजशास्त्र, इतिहास और कंप्यूटर जैसी चीज़ें भी जोड़नी होंगी, ताकि बच्चे मज़हबी और आधुनिक दोनों दृष्टियों से मज़बूत बन सकें। बहुत से मदरसे अब सुधार की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अभी यह बहुत सीमित स्तर पर है।
एक और बड़ी बात है जागरूकता की कमी। बहुत से माता-पिता यह सोचते हैं कि दीनी तालीम सिर्फ नमाज़, रोज़ा या कुरआन पढ़ने तक सीमित है। जबकि इस्लाम ने “इल्म” को बहुत ऊँचा दर्जा दिया है। पैग़म्बर मोहम्मद (स.अ.व.) ने कहा था कि “इल्म हासिल करना हर मुसलमान मर्द और औरत पर फ़र्ज़ है।” इसका मतलब यह नहीं कि सिर्फ धार्मिक ज्ञान, बल्कि हर वह ज्ञान जो इंसान को बेहतर बनाए, वह इस्लाम में इल्म कहलाता है। अगर मुसलमान इस बात को समझ लें, तो वे दीनी तालीम को रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जोड़ सकते हैं।
आज के दौर में यह भी देखा गया है कि बहुत से नौजवान दीनी तालीम को पुरानी सोच या बेकार मानने लगे हैं। इसका कारण है कि उन्हें आधुनिक तरीके से दीनी तालीम नहीं दी जाती। अगर मदरसों और इस्लामी संस्थाओं में नए तरीके अपनाए जाएँ — जैसे डिजिटल क्लास, रिसर्च, बहस-मुबहिसा और जीवन से जुड़े उदाहरण — तो दीनी तालीम भी युवाओं को आकर्षित कर सकती है।
इसके अलावा सरकारी और सामाजिक सहयोग की भी कमी है। मदरसों को कुछ मदद ज़रूर मिलती है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। समाज के अमीर और शिक्षित वर्ग को भी आगे आकर शिक्षा सुधार की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। जब तक समाज खुद अपनी तालीम के लिए जागरूक नहीं होगा, तब तक बाहर से कोई बदलाव नहीं ला सकता।
भाषा भी एक कारण है। दीनी तालीम ज़्यादातर जगहों पर उर्दू या अरबी में दी जाती है, जबकि आज की पीढ़ी हिंदी और अंग्रेज़ी में ज़्यादा सहज है। इसलिए बच्चे उस शिक्षा से जुड़ नहीं पाते। अगर दीनी तालीम को सरल और समझने योग्य भाषा में दिया जाए, तो ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे उससे जुड़ सकेंगे।
अंत में सबसे अहम बात यह है कि मुसलमानों को यह समझना होगा कि दीनी और दुनियावी तालीम दो अलग चीज़ें नहीं, बल्कि एक ही रास्ते की दो धाराएँ हैं। दीनी तालीम इंसान को अच्छा इंसान बनाती है, जबकि दुनियावी तालीम उसे समाज में आगे बढ़ने की ताकत देती है। अगर दोनों का मेल कर दिया जाए, तो मुसलमान समाज हर क्षेत्र में आगे बढ़ सकता है। इस्लाम ने हमेशा इल्म की इज़्ज़त की है — चाहे वह धार्मिक हो या दुनियावी। ज़रूरत सिर्फ इस सोच को ज़मीनी हकीकत में बदलने की है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ दीनी तालीम में भी आगे बढ़ें और समाज में भी अपनी पहचान बनाएँ।