“विजय पताका के पीछे छिपे आँसू”

(शिवम यादव अंतापुरिया)
युद्ध का नाम सुनते ही मन में बंदूकें, गोलियाँ, तोपें, टैंक और बमों की तस्वीरें उभर आती हैं। किन्तु युद्ध केवल रणभूमि में लड़े जाने वाले हथियारों का संघर्ष नहीं होता, वह हृदयों का टूटना भी होता है, वह आँसुओं की धार भी होता है, वह किसी माँ की सूनी गोद, किसी पत्नी की प्रतीक्षा, किसी बहन की राखियाँ और किसी बच्चे की मासूम पुकार भी होता है। युद्ध जब होता है, तो केवल दो देशों के बीच सीमा रेखा नहीं खिंचती, अपितु असंख्य परिवारों के जीवन में एक गहरी खाई बन जाती है।युद्ध का सबसे अधिक प्रभाव उस साधारण नागरिक पर पड़ता है, जो स्वयं युद्ध का कारण नहीं होता, परन्तु परिणाम भोगता है। उसके पास न कोई बुलेटप्रूफ जैकेट होती है, न कोई रणनीति, न कोई सुरक्षा—केवल उसका जीवन होता है, जो या तो खो जाता है या विकलांगता में तब्दील हो जाता है। युद्ध की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि वह उन्हीं को निशाना बनाता है, जिन्होंने कभी बंदूक नहीं उठाई होती।
जब कोई सैनिक युद्धभूमि की ओर बढ़ता है, तो उसके साथ केवल उसका हथियार नहीं होता, उसके साथ उसके परिवार की उम्मीदें, उसकी माँ की ममता, उसके बच्चे की मुस्कान और उसकी पत्नी की चिंता भी होती है। उस क्षण जब गोलियाँ चलती हैं, वहाँ केवल शरीर ही नहीं गिरते, वहाँ रिश्तों के धागे भी टूटते हैं। जो सैनिक शहीद हो जाता है, वह तो अमर हो जाता है, लेकिन उसके घर की दीवारों पर सन्नाटा पसरा रहता है। उसके बच्चों की आँखों में वो प्रश्न होता है जिसका उत्तर कोई सरकार, कोई इतिहास, कोई राष्ट्र नहीं दे सकता।एक माँ जिसने बेटे को अपनी कोख से जन्म दिया, जो हर वर्ष उसकी ऊँचाई दीवार पर चिन्हित करती थी, वह अचानक एक फ्रेम में उसकी तस्वीर को देखकर जिंदा रह जाती है, लेकिन भीतर से मर जाती है। क्या वह केवल एक राष्ट्रभक्त माँ बनकर संतोष कर सकती है? शायद नहीं। वह गर्व करती है, लेकिन उसकी आँखें रोज़ उस दरवाज़े को देखती हैं, जहाँ से उसका बेटा कभी छुट्टी पर आया करता था।
पत्नी, जो हर रात उसके कॉल का इंतज़ार करती थी, वह अब उन कॉल रिंग्स में अपनी चीखें सुनती है। वह युद्ध की घोषणा के दिन से शांति समझौतों तक की हर खबर को पढ़ती है, सुनती है, पर समझ नहीं पाती कि क्यों वह युद्ध आवश्यक था, यदि उसका सुख उससे छीन लिया गया?बच्चा, जो अभी ‘पापा’ बोलना ठीक से नहीं सीख पाया था, जब बड़ा होगा, तो उसके मन में केवल कहानियाँ होंगी — कि उसके पापा बहुत बहादुर थे। लेकिन उन कहानियों में कभी भी वह दिन लौटकर नहीं आएगा, जब वह अपने पिता की ऊँगली पकड़कर स्कूल जा सकता था, या उनकी गोद में बैठकर कहानियाँ सुन सकता था।सिर्फ सैनिक ही नहीं, आम नागरिक भी युद्ध का शिकार बनते हैं। जब बम किसी शहर पर गिरता है, तो वह किसी खास धर्म, जाति या वर्ग को नहीं पहचानता। वह गिरता है इंसानों पर। वह तबाही करता है उनकी ज़िंदगियों की, जो केवल अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी जी रहे थे—जो दुकान चला रहे थे, बच्चे स्कूल भेज रहे थे, बुज़ुर्ग पूजा कर रहे थे।
शरणार्थी शिविरों में अपने देश से बेघर लोग, वे बच्चे जो खुले आसमान के नीचे जन्म लेते हैं, वे महिलाएँ जो असुरक्षित हैं, वे युवाएँ जो जीवन को लेकर अब किसी सपने में विश्वास नहीं करतीं—ये सब युद्ध के असली शिकार हैं।युद्ध की घोषणा भले कागज़ों पर होती हो, पर उसका असर सदियों तक मानसिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से समाज को विचलित करता है। युद्ध के बाद जो पीढ़ी आती है, वह अक्सर या तो अपने पूर्वजों की कहानियों से भयभीत होती है या प्रतिशोध से भरी होती है। यह चक्र एक शांतिपूर्ण समाज के विकास को बार-बार बाधित करता है।जब कोई राष्ट्र युद्ध जीतता है, तो सिर्फ एक विजय पताका लहराती है, पर युद्धभूमि पर न वह माँ होती है, न वह बच्चा, न वह पत्नी जो उस झंडे के नीचे अपने आँसुओं को छुपा सके। राष्ट्र की सीमाएँ बनती हैं, पर हृदयों की सीमाएँ टूट जाती हैं।
युद्ध हमेशा ‘किसी महान उद्देश्य’ की आड़ में लड़ा जाता है। परंतु वह उद्देश्य उस समय बेमानी हो जाता है, जब कोई वृद्ध पिता अपने जवान बेटे की लाश को पहचानने जाता है, या जब कोई मासूम बच्चा अपने पिता के कंधों की ऊँचाई से वंचित रह जाता है।इसलिए आवश्यक है कि युद्ध को केवल “रणनीति” या “राजनीति” के चश्मे से न देखा जाए। उसे “संवेदनाओं” के चश्मे से भी देखा जाए। जरूरी है कि शांति को केवल एक आदर्श न माना जाए, बल्कि उसे हर देश की प्राथमिक नीति बनाया जाए।
युद्ध का विकल्प संवाद है, प्रेम है, सहअस्तित्व है।
इस लेख के अंत में यही कहूँगा—
युद्ध यदि किसी भी कीमत पर टाला जा सकता है, तो उसे टाल देना चाहिए।
क्योंकि…
*”युद्ध मात्र युद्ध नहीं होता, वह जीवन की अनेक संभावनाओं की मौत होता है।”*
शिवम यादव अंतापुरिया
बी.बी.ए.यू. लखनऊ उत्तर प्रदेश