“ताड़ी की तासीर और सियासत की चाल: बिहार की हकीकत”

(सलीम रज़ा)
बिहार की सियासत हमेशा से जातीय समीकरण, सामाजिक आंदोलनों और लोक संस्कृति के मुद्दों से प्रभावित रही है। हाल के वर्षों में “ताड़ी” (खजूर या ताड़ के पेड़ से निकाली जाने वाली एक पारंपरिक मादक पेय) को लेकर जो राजनीतिक बहस छिड़ी है, वह न सिर्फ शराबबंदी कानून की परिधि में आती है, बल्कि इसके सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक निहितार्थ भी काफी गहरे हैं। यह लेख ताड़ी से जुड़े विवाद को बिहार की राजनीति के व्यापक संदर्भ में समझाने का प्रयास करता है।
ताड़ी सदियों से बिहार की ग्रामीण संस्कृति का हिस्सा रही है, खासकर दलित, पिछड़ी जातियों और आदिवासी समुदायों के लिए। यह एक पारंपरिक पेय है, जिसे आमतौर पर गर्मी में सुबह-सुबह पीया जाता है। ताड़ी सिर्फ नशा नहीं है, बल्कि कुछ समुदायों के लिए यह आजीविका का स्रोत भी है। ताड़ी का उत्पादन और विक्रय विशेषकर “पनिहार” और “नाई” जैसी जातियों से जुड़ा है।
2016 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू की। इसका मकसद महिलाओं को घरेलू हिंसा और पुरुषों को शराब की लत से मुक्त कराना था। हालांकि शराबबंदी के बाद अवैध शराब का कारोबार बढ़ा, लेकिन इसी क्रम में ताड़ी पर भी कार्रवाई शुरू हुई। कई इलाकों में ताड़ी बेचने वालों को पुलिस ने गिरफ्तार किया, पेड़ काटे गए, और इसे भी “शराब” की श्रेणी में रख दिया गया।
यहां सवाल उठता है — क्या ताड़ी, जो सदियों से पारंपरिक रूप से उपभोग में है, उसे आधुनिक शराब के समकक्ष रखना उचित है?
ताड़ी को लेकर विवाद तब और गहरा गया जब विपक्षी दलों ने इसे “दलितों और पिछड़े वर्गों की आजीविका पर हमला” करार दिया। राष्ट्रीय जनता दल (राजद), हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम), और अन्य छोटे दलों ने इसे सामाजिक न्याय के खिलाफ कदम बताया। उनके अनुसार, शराबबंदी की आड़ में सिर्फ शराब नहीं, बल्कि गरीबों की संस्कृति और व्यवसाय को निशाना बनाया गया।
नीतीश कुमार की सरकार ने बाद में स्पष्ट किया कि “प्राकृतिक ताड़ी” पर कोई प्रतिबंध नहीं है, बल्कि केवल उसमें मिलावट कर उसे नशीला बनाकर बेचने वालों पर कार्रवाई होती है। हालांकि ज़मीनी हकीकत कुछ और कहती है — गांवों में ताड़ी वालों पर आए दिन कार्रवाई की खबरें आती रहती हैं।
नीतीश कुमार की सरकार ने शराबबंदी को महिलाओं की मांग बताया और इसे “नैतिक राजनीति” से जोड़ा। महिला वोटर बैंक को ध्यान में रखते हुए यह एक मजबूत संदेश था कि सरकार महिलाओं के हित में कठोर निर्णय लेने से नहीं हिचकती। हालांकि ताड़ी को भी इसी दायरे में लाने से सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के सवाल उठे।
एक और रोचक पहलू यह है कि कई बार यह आरोप लगा है कि बिहार में अंग्रेजी शराब की तस्करी जारी है, जबकि ताड़ी जैसे पारंपरिक पेयों पर कठोरता दिखाई जाती है। क्या यह वास्तव में “वर्गीय भेदभाव” नहीं है? जहां गरीब की पेय को अपराध बना दिया गया, वहीं अमीरों के लिए शराब अब भी पर्दे के पीछे उपलब्ध है।
2024 के लोकसभा चुनाव और आगामी विधानसभा चुनावों में ताड़ी का मुद्दा फिर से उठाया जा सकता है। खासकर दलित और पिछड़ा वर्ग की राजनीति करने वाले दल इसे “आत्मसम्मान” और “रोजगार” से जोड़ सकते हैं। यह सिर्फ एक पेय का मामला नहीं, बल्कि पहचान, स्वाभिमान और अधिकार का प्रश्न बन चुका है।
ताड़ी को लेकर बिहार में जो सियासत हो रही है, वह महज़ एक नशे की वस्तु पर बहस नहीं है, बल्कि यह सवाल है —
-
किसकी संस्कृति को मान्यता दी जाती है?
-
किन लोगों की आजीविका को “गैरकानूनी” करार दिया जाता है?
-
और कानून का उपयोग किनके खिलाफ होता है?
ताड़ी का मुद्दा हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि विकास और नैतिकता के नाम पर जो फैसले लिए जाते हैं, क्या वे सभी वर्गों के लिए समान रूप से लाभकारी होते हैं?