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विश्व बाल श्रम निषेध दिवस : बचपन के हाथों में खिलौने नहीं, औज़ार क्यों हैं?

(सलीम रज़ा पत्रकार)

बाल श्रम देश के अन्दर एक ऐसा ग्रहण है जो भारत के विश्व गुरू बनने का ढिंढोरा पीटने वालों का मुह चिढ़ाता है। ये एक ऐसा नासूर है जिसका निदान होता नज़र नहीं आता। यूं तो हर साल विश्व बाल श्रम निषेध दिवस मनाया तो जाता है लेकिन सिर्फ औपचारिकता के रूप मे ं। इसका स्थाई समाधन तलाशना किसी चैलेन्ज से कम नहीं है। आईए इस बाल श्रम निषोध दिवस पर हम भी एक लेख के जरिए औपचारिकता पूरी कर ही लेते हैं ।

विश्व बाल श्रम निषेध दिवस, जिसे हर साल 12 जून को मनाया जाता है, मानवता की एक अत्यंत गहन विडंबना की ओर हमारा ध्यान खींचता है — वह विडंबना, जिसमें बचपन जो स्वाभाविक रूप से आनंद, शिक्षा, खेल और प्रेम का अधिकार रखता है, वह गरीबी, शोषण, और अन्याय के कारण एक बोझिल जीवन जीने को मजबूर हो जाता है। यह दिन केवल एक प्रतीक भर नहीं है, बल्कि यह एक विश्वव्यापी चेतावनी है कि हमारे समाज में अभी भी करोड़ों बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें हम शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित कर, सस्ते श्रमिकों की तरह उपयोग कर रहे हैं।

बाल श्रम एक वैश्विक संकट है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार, आज भी लगभग 160 मिलियन बच्चे बाल श्रम का शिकार हैं — इनमें से लगभग आधे बच्चे ऐसे कार्यों में लगे हुए हैं जो उनके मानसिक, शारीरिक और नैतिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत खतरनाक हैं। इनमें से कई को सुबह-सवेरे से लेकर रात तक फैक्ट्रियों, खेतों, घरों, दुकानों और खदानों में झोंक दिया जाता है। वे बम बनाते हैं, ईंटें ढोते हैं, विषैली गैसों के बीच सांस लेते हैं, और जीवन का अर्थ समझने से पहले ही उसका संघर्ष जीने लगते हैं।

भारत में बाल श्रम की स्थिति चिंताजनक है। यद्यपि बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम 1986, जिसे 2016 में संशोधित भी किया गया, 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी भी व्यावसायिक कार्य में लगाने को अवैध ठहराता है, फिर भी वास्तविकता यह है कि देश के कई हिस्सों में बच्चे आज भी घरेलू नौकरियों, ढाबों, चाय की दुकानों, खेतों और निर्माण स्थलों पर मेहनत करते नजर आते हैं। बहुत से बच्चे खतरनाक उद्योगों में — जैसे पटाखा निर्माण, कांच और बीड़ी उद्योग — में लगे हुए हैं, जहां उनकी जान हर वक्त खतरे में होती है।

इसका मूल कारण गहराई से समझने की आवश्यकता है। बाल श्रम केवल एक आर्थिक समस्या नहीं है, यह एक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विफलता का प्रतिबिंब है। जब एक परिवार भूख से जूझ रहा होता है, जब अभिभावकों को खुद रोजगार की स्थिरता नहीं मिलती, जब शिक्षा दूर या महंगी हो जाती है, और जब प्रशासनिक ढांचा सुस्त पड़ जाता है, तब एक बच्चा श्रमिक बन जाता है। कई बार यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलता अन्याय बन जाता है — जहाँ परिवारों को लगता है कि उनके बच्चों का भविष्य शिक्षा नहीं, श्रम में है।

एक और चिंताजनक पहलू यह है कि बाल श्रम अब केवल आर्थिक शोषण नहीं रहा, यह मानव तस्करी, यौन शोषण, बाल विवाह और संगठित अपराधों से भी जुड़ता जा रहा है। बाल तस्करी के मामलों में बच्चों को दूसरे राज्यों में जबरन काम के लिए भेजा जाता है, जहाँ वे कानून और समाज की नजरों से दूर, अत्याचारों की छाया में जीते हैं।

सवाल उठता है: इससे समाधान कैसे निकले? केवल कानून बनाकर हम इस गंभीर समस्या से नहीं निपट सकते। इसके लिए एक बहुस्तरीय और समवेत प्रयास की आवश्यकता है।

सबसे पहला कदम है — शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुंच सुनिश्चित करना। जब तक बच्चों को मुफ्त, अनिवार्य और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलेगी, तब तक वे श्रम से बाहर नहीं निकल पाएंगे। मिड डे मील, मुफ्त किताबें, यूनिफॉर्म जैसी योजनाओं को केवल योजनाओं तक सीमित नहीं रखा जा सकता, उन्हें व्यवहार में पूरी तरह उतारना होगा।

दूसरा कदम — परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधारना। यदि माता-पिता को स्थायी रोजगार, न्यूनतम मजदूरी, स्वास्थ्य बीमा और सामाजिक सुरक्षा प्राप्त हो, तो वे अपने बच्चों को श्रम में लगाने की बजाय शिक्षा की ओर प्रेरित करेंगे।

तीसरा पहलू — समाज की मानसिकता में बदलाव। आज भी बहुत से लोग बाल श्रमिकों को देखकर अनदेखा कर देते हैं या उन्हें “गरीबी में मदद” का साधन मान लेते हैं। यह नजरिया खत्म करना होगा। प्रत्येक नागरिक की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह बाल श्रम को कहीं भी होते हुए देखे, तो उसे रोकने का प्रयास करे और संबंधित प्राधिकरणों को सूचित करे।

चौथा — प्रशासन और निगरानी तंत्र को सशक्त और जवाबदेह बनाना। चाहे बाल श्रम को समाप्त करने की जिम्मेदारी जिला प्रशासन की हो या श्रम विभाग की, जब तक वे हर स्तर पर सक्रिय और पारदर्शी नहीं होंगे, तब तक ज़मीनी बदलाव नहीं आ सकता।

पाँचवाँ और बहुत जरूरी पक्ष — जागरूकता और संवाद। स्कूलों, कॉलेजों, पंचायतों, मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से यह अभियान चलाना होगा कि “बचपन काम का नहीं, पढ़ाई का हकदार है।” बाल श्रम न केवल बच्चों का हक छीनता है, बल्कि राष्ट्र की नींव को भी खोखला करता है।

विश्व बाल श्रम निषेध दिवस हमें यह याद दिलाने आता है कि कोई भी समाज तब तक सभ्य नहीं कहा जा सकता जब तक उसका हर बच्चा सुरक्षित, शिक्षित और आज़ाद न हो। बच्चों के पास सपने देखने का अधिकार है — और जब हम उन्हें बाल श्रम में झोंकते हैं, तो हम न केवल उनके सपनों को कुचलते हैं, बल्कि समाज के भविष्य को भी अंधकार की ओर धकेलते हैं।

इसलिए यह केवल एक सामाजिक मुद्दा नहीं, एक नैतिक प्रश्न है — क्या हम एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं जो अपने सबसे छोटे नागरिकों को सबसे कमजोर समझकर शोषित करता है? या फिर हम एक ऐसे भारत की कल्पना करते हैं जहां हर बच्चा खुलकर हँस सके, बिना डर के जी सके, और शिक्षा के माध्यम से अपने जीवन को संवारे? उत्तर हमारे हाथ में है — और समय सीमित। यदि हमें बाल श्रम को जड़ से समाप्त करना है, तो आज ही से, और अभी से, काम करना होगा। यही इस दिवस की सच्ची प्रासंगिकता है।

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