दिव्य धाम आश्रम में शिष्यत्व उत्थान के लिए आध्यात्मिक साधना के महत्व को उजागर किया गया
देहरादून । दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के दिव्य धाम आश्रम, दिल्ली में वेबकास्ट श्रृंखला की 91वें संस्करण को प्रस्तुत किया गया। दुनिया भर के हजारों शिष्यों और भक्तों ने डीजेजेएस के यूट्यूब चौनल के माध्यम से वेबकास्ट किए गए इस दिव्य कार्यक्रम में भाग लिया और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किया। कार्यक्रम का आरम्भ भक्तिमय, प्रेरणादायक भजनों से हुआ। सर्व आशुतोष महाराज जी (डीजेजेएस के संस्थापक और संचालक) की शिष्या साध्वी मणिमाला भारती ने आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर शिष्यों हेतु महत्वपूर्ण व अनिवार्य तथ्यों को रखा।
गुरु और शिष्य का अनमोल सम्बन्ध दिव्य प्रेम पर आधारित होता है। परन्तु भक्ति पथ पर ऐसा समय भी आता है जब शिष्य के शिष्यत्व की परीक्षा होती है, जीवन की विपरीत परिस्थितियों में उसे परखा जाता है। यह वह समय होता है, जब शिष्य को अपने भीतर उठने वाले काम, क्रोध, मोह, लोभ जैसे विकारों पर लगाम कसनी पड़ती है। अपने आध्यात्मिक तप को सिद्ध करना पड़ता है। पर ये संभव कैसे हो? साध्वी जी ने इसी बात को सिद्ध करने के लिए इतिहास का एक बहुत ही ज्वलंत उदाहरण रखा- रानी पद्मावती का जौहर! जब अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मावती को पाने लिए आमादा हो गया और उसने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया, उस समय रानी ने समक्ष और कोई विकल्प नहीं बचा था। अपने सम्मान और चरित्र की रक्षा करने के लिए उन्होने जौहर का पथ चुना। यानि स्वयं को अग्नि के सपुर्द कर दिया। साध्वी जी ने बताया कि ठीक इसी तरह जब जब भी खिलजी रूपी विकार एक साधक पर धावा बोलते हैं तो साधक को भी आध्यात्मिक जौहर का पथ ही चुनना चाहिए। यानि, साधना में स्थिर होकर स्वयं को भीतरी अग्नि के सपुर्द कर देना चाहिए। ऐसी ब्रह्म अग्नि जो कहीं बाहर नहीं जलती बल्कि दीक्षा के समय सतगुरु भीतर प्रकट करते हैं। ये भीतरी आध्यात्मिक जौहर साधक का ऐसा उत्थान कर देता है कि फिर कोई विकार उस पर हावी नहीं हो पाता। एक सच्चा शिष्य बिना विचलित हुए गुरु द्वारा दिखाए गए आध्यात्मिक मार्ग पर आसानी से चल पाता है। फिर इस मार्ग से भटकने की या गिरने कि कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती।
अपने इसी सिद्धान्त को सिद्ध करने के लिए साध्वी जी ने श्रोताओं के समक्ष भक्त नंदनर की गाथा को भी रखा। चिदंबरम के थिलाई नटराज मंदिर के इतिहास में नंदनर का नाम भगवान शिव के भक्तों के रूप में उल्लेख किया गया है। नंदनर, जो भगवान शिव का दर्शन करना चाहता था। किन्तु मंदिर के पुजारियों ने उसका मंदिर में प्रवेश निषेध किया हुआ था। आखिरकार भक्त नंदनर भी अग्नि की लपटों से गुजरा और भगवान की मूरत में ही समा गया। साध्वी जी ने कहा की ये उदाहरण किसी बाहरी अग्नि की लपटों में प्रवेश करने का नहीं है बल्कि ये तो एक साधक की गहरी ध्यान साधना की और संकेत कर रहा है। एक साधक ध्यान साधना की गहराइयों में उतर कर ही पूर्ण रूप से अपने इष्ट को प्राप्त कर सकता है। भीतर प्रज्ज्वलित ज्ञान अग्नि में अपने सारे विकारों, कुसंस्कारों को दाह कर के ही अध्यात्म की ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है।